Article on whistleblowers of India in Navbharat Times 3/4/2010

श श् श् श्… सच बोलना मना है! link to Navbaharat Times

सत्येंद्र दुबे ने सच बोला था, जिनके हत्यारों को हाल में उम्रकैद दी गई है। सच मंजूनाथ ने भी बोला था और
सच सतीश शेट्टी ने भी बोला था। सभी ने भ्रष्टाचार, धांधलियों और घोटालों का भंडाफोड़ किया था। आज वे इस दुनिया में नहीं हैं। तो क्या आज के माहौल में सच बोलना गुनाह बन गया है? व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना क्या अपनी जिंदगी को दांव पर लगाना है? क्या ऐसे जांबाज और ईमानदार लोगों की हिफाजत करना सरकार की जिम्मेदारी नहीं ? पूरे मामले का लेखा-जोखा ले रही हैं प्रियंका सिंह :

एक सदाचारी और हिम्मती शख्स अपनी आत्मा की आवाज को साफ-साफ सुन सकता है। लेकिन किसी भी बुरे आदमी में यह गुण गायब होता है। उसकी चेतना की संवेदनशीलता भ्रष्टाचार या बुरे कामों से नष्ट हो जाती है, इसलिए उसे सही और गलत का फर्क पता नहीं चलता। जो लोग संस्था, बिजनेस, कारोबार या सरकार चला रहे हैं, उन्हें अपनी चेतना के इस्तेमाल का गुण अपने अंदर विकसित करना होगा। यही गुण उन्हें आजादी का लुत्फ लेने लायक बनाएगा।
ए. पी. जे. अब्दुल कलाम, 'सरकारों और मानवाधिकारों पर भ्रष्टाचार का असर' सेमिनार में (तब जब राष्ट्रपति थे)।

लेकिन सवाल यह है कि आखिर कितने लोगों में वाकई अपनी आत्मा की आवाज सुनने और उसके साथ चलने की हिम्मत होती है। गिने-चुने लोग ही ऐसा कर पाते हैं और जो कर पाते हैं, उनमें से ज्यादातर को इस साफगोई और ईमानदारी का खमियाजा उठाना पड़ता है। नैशनल हाइवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) के इंजीनियर सत्येंद्र दुबे इसका सबसे चर्चित उदाहरण हैं। आईआईटी के इस इंजीनियर को नवंबर 2003 में एक सर्द सुबह गोलियों से भून दिया गया। उनका जुर्म यह था कि वह काफी ईमानदार थे और उन्होंने हाइवे निर्माण में पसरे भ्रष्टाचार के खिलाफ तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को खत लिखने की हिम्मत दिखाई थी।

करीब दो साल बाद 2005 में आईओसी के मार्केटिंग इंजीनियर मंजूनाथ की हत्या की गई क्योंकि उन्होंने पेट्रोल में होनेवाली मिलावट और उसे अंजाम देनेवाले माफिया का पर्दाफाश किया था। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों से निकले ये होनहार भ्रष्टाचारियों के बुरे इरादों की भेंट चढ़ गए। दुबे या मंजूनाथ अकेले हीरो नहीं हैं। नरेगा में धांधली के खिलाफ शिकायत करने पर मई 2008 में पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में बीडीओ कलोल सुर को फांसी लगा दी गई। सरकारी तंत्र ने उनकी शहादत पर खुदकुशी का रंग चढ़ा दिया। सोशल एक्टिविस्ट सतीश शेट्टी का नाम इस फेहरिस्त में सबसे ताजा है। दशक भर पहले देश के पहले एक्सप्रेस-वे मुंबई-पुणे एक्सप्रेस-वे और उसके आसपास हुए कई भूमि घोटालों को उजागर करने से लेकर अब तक कई बार भ्रष्टाचारियों की मुखालफत करनेवाले शेट्टी का जनवरी में पुणे में कत्ल कर दिया गया।

ऐसी शहादतों की फेहरिस्त काफी लंबी है लेकिन फिर भी इन शहीदों को इंसाफ दिलाने या ऐसे दूसरे लोगों की हिफाजत करने के लिए कोई खास कदम नहीं उठाया गया है। न ही इनके लिए पब्लिक में कोई हलचल नजर आई। वजह यह है कि ऊपर से नीचे तक पसरे भ्रष्टाचार के हम आदी हो चुके हैं। रिश्वत लेना और देना हमारी आदत में शुमार है। अपने छोटे-से फायदे के लिए सरकार को बड़ा नुकसान पहुंचा देने में हमें गुरेज नहीं होता। इसी मानसिकता की वजह से भ्रष्टाचार हमारे लिए बड़ा मुद्दा नहीं बचा है। लेकिन दुबे के हत्यारों को हाल में सजा सुनाए जाने के बाद एक बार फिर यह मांग जोर पकड़ने लगी है कि समाज की बुराइयों, बेईमानी, भ्रष्टाचार, फ्रॉड के खिलाफ आवाज उठाने वालों को सुरक्षा दी जाए।

सच बोलने की कीमत बड़ी
ऐसे लोगों में से ज्यादातर को तमाम मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। या तो उनका कत्ल कर दिया गया या फिर झूठे मुकदमों, जबरन ट्रांसफर, मारपीट जैसी परेशानियां झेलनी पड़ीं। प्राइवेट सेक्टर में जिन्होंने यह हिम्मत दिखाई, उनमें से ज्यादातर को फौरन बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। कुछ के नाम कभी सामने आ ही नहीं पाए। आज भी सत्यम घोटाले का पर्दाफाश करने वाले का नाम कोई नहीं जानता। सिर्फ उसके बारे में इतनी जानकारी भर है कि वह शख्स 41 साल का है। सरकार भी इन लोगों के काम को अहमियत देने को तैयार नहीं है। दुबे ने पीएमओ को लिखी चिट्ठी में अपने नाम का खुलासा न करने का अनुरोध किया था। लेकिन हुआ इसके ठीक उलट। हैरानी की बात यह है कि उनकी पहचान का खुलासा करनेवालों के खिलाफ भी सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। इसी तरह, कर्नाटक के चीफ सेक्रेट्री ने कहा कि षण्मुगम मंजूनाथ ट्रस्ट की अवॉर्ड सेरेमनी में कोई भी सरकारी अधिकारी शामिल नहीं होगा। यह उनकी शहादत का अपमान है। हालांकि एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉर्म्स कमिशन सत्येंद दुबे और मंजूनाथ, दोनों की शहादत को मानता है।

सरकारी बेरुखी का एक और उदाहरण हैं कर्नाटक सिल्क मार्केट बोर्ड के चेयरमैन एम. एन. विजयकुमार। विजयकुमार ने 2005 में पावर सेक्टर में 300 करोड़ रुपये के घोटाले का पर्दाफाश किया। इसके बाद से सरकारी मशीनरी और बड़े अधिकारी उनके पीछे पड़ गए। हालत यह है कि सितंबर 2006 से जून 2007 के नौ महीनों में छह बार उनका ट्रांसफर किया गया और बंद पड़ी कंपनी का एमडी बना दिया गया। विजयकुमार कर्नाटक के पहले ऐसे आईएएस अधिकारी हैं, जिन्होंने अपनी जायदाद ऑनलाइन की। इन्हीं सब वजहों से विजयकुमार दूसरे अफसरों की आंखों की किरकिरी बन गए। लेकिन उनकी पत्नी जयश्री जे. एन. ने इस नाइंसाफी के खिलाफ आवाज बुलंद कर रखी है। वह वेबसाइट के जरिए लोगों में जागरूकता फैला रही हैं। बकौल जयश्री, हमारी कोशिश है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठानेवाले सभी लोगों को इंसाफ और कानूनी सुरक्षा मिल सके। मेरी मुहिम को काफी जोरदार समर्थन भी मिल रहा है। तहलका ने जब डिफेंस सौदों में धांधलेबाजी उजागर की तो पोर्टल से जुड़े लोगों के साथ सरकारी मशीनरी का बर्ताव किसी से छुपा नहीं है।

भारत में ज्यादा जरूरी
हमारे देश में भंडाफोड़ की मुहिम ज्यादा जरूरी है क्योंकि यहां भ्रष्टाचार, घोटाले और धांधलियां बेहद आम हैं। चीनी घोटाला, चारा घोटाला, टेलिकॉम घोटाला, यूरिया घोटाला, स्टाम्प पेपर घोटाला, बाढ़ घोटाला, सत्यम घोटाला… यह लिस्ट इतनी लंबी है कि हिसाब रखना भी मुश्किल लगता है, जबकि जिन मामलों का खुलासा हो ही नहीं सका, वे इससे कई गुना ज्यादा हैं। वेबसाइट http://www.corruptioninindia.org/scams की मानें तो 1992 से अभी तक देश में 73 लाख करोड़ रुपये घोटाले की भेंट चढ़ चुके हैं। इतनी बड़ी रकम से 2.4 करोड़ प्राइमरी हेल्थकेयर सेंटर बनाए जा सकते हैं, 14.6 करोड़ कम बजट के मकान बन सकते थे, नरेगा जैसी 90 स्कीमें शुरू हो सकती हैं, 60.8 करोड़ लोगों को नैनो मिल सकती है, हर भारतीय को 56 हजार रुपये या बीपीएल से नीचे रहनेवाले सभी 40 करोड़ लोगों में से हर किसी को 1.82 लाख रुपये मिल सकते हैं। यानी पूरे देश की तस्वीर बदल सकती है। अनुमान है कि जीडीपी के करीब आधे हिस्से के बराबर रकम भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है।

सोशल एक्टिविस्ट अरविंद केजरीवाल के मुताबिक हमारे देश की कानून-व्यवस्था पूरी तरह खत्म हो चुकी है, इसीलिए गलत काम करनेवाले अपने खिलाफ आवाज उठानेवालों का कत्ल करने में जरा भी नहीं हिचकते। सरकार भी इनकी हिफाजत के लिए कुछ नहीं करती, जबकि दूसरे देशों में इस तरह की घटनाओं को बहुत गंभीरता से लिया जाता है। उदाहरण के लिए हॉन्गकॉन्ग में अगर यह माना जाता है कि किसी गवाह की जान को खतरा है तो सरकारी तंत्र उसकी पहचान बदल देता है, नया कारोबार शुरू करा देता है, यहां तक कि उस शख्स को दूसरे देश भी भेज देता है। वे एक गवाह की जान बचाने के लिए करोड़ों रुपये तक खर्च कर देते हैं।

फिलहाल क्या स्थिति
दुबे मामले पर काफी हंगामा मचा और अप्रैल 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में बिल लाने और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) को भ्रष्टाचार संबंधी शिकायतों को डील करने का जिम्मा सौंपने का निर्देश दिया। इसके बाद सरकार ने सीवीसी को आदेश दिया कि इन लोगों की सुरक्षा के लिए इंतजाम किए जाएं। एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉर्म्स कमिशन ने भी इसी तरह के सुझाव दिए हैं। इन सिफारिशों के आधार पर द पब्लिक इंटरेस्ट डिस्क्लोजर (प्रोटक्शन ऑफ इनफॉमर्स) बिल तैयार किया गया। इसके मुताबिक कोई भी शख्स केंद्रीय सरकार के कर्मी या केंद्रीय सरकार की मदद से चलाए जा रहे संस्थान के खिलाफ सीवीसी को शिकायत कर सकता है। सीवीसी के पास सिविल कोर्ट की तमाम शक्तियां होंगी, जिनमें किसी को समन जारी करने के अलावा पुलिस छानबीन और आवाज उठानेवाले शख्स को सुरक्षा प्रदान करने की शक्ति शामिल हैं। वैसे, बिल अभी संसद में पेश भी नहीं हो पाया है लेकिन फिर भी इससे बहुत उम्मीदें नहीं हैं क्योंकि ये सिफारिशें राज्य सरकारों के लिए अनिवार्य नहीं होंगी, बल्कि इन्हें लागू करना उनकी मर्जी पर निर्भर करेगा।

2004 में दुबे केस की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी निदेर्शों के आधार पर केंद्र सरकार ने सभी स्टेट सेक्रेट्री को ईमानदार अफसरों की सुरक्षा करने के लिए पत्र लिखा था। लेकिन किसी भी राज्य सरकार ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया, न ही केंद ने दोबारा कोई निदेर्श दिया। कुछ प्राइवेट कंपनियों में जरूर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठानेवाले लोगों की सुरक्षा के लिए पॉलिसी लागू है। सेबी ने सभी लिस्टेड कंपनियों के लिए इस पॉलिसी को अनिवार्य बनाया था लेकिन बाद में कुछ बड़ी कंपनियों के दबाव में इसे ऐच्छिक बना दिया गया।

आगे और क्या हो
समाजसेवी और लेखक हर्ष मंदर के मुताबिक, कानून जरूरी है लेकिन इसी से समस्याएं हल नहीं हो जाएंगी। इसके लिए राजनैतिक, सामाजिक, नैतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए। सबसे अच्छा है कि सरकार और ज्यादा पारदशिर्ता अपनाए। जो लोग आवाज उठाएं, उन्हें पूरी सुरक्षा दी जाए। वैसे, कानून आ जाने से लोगों के पास अपने हक में एक हथियार जरूर होगा। असल में, ऐसे लोगों की हिफाजत के अलावा उन्हें इंसाफ दिलाने के लिए इच्छाशक्ति भी होनी जरूरी है। इसके लिए हमें एक तेज और पारदर्शी जूडिशल सिस्टम की जरूरत है। बकौल केजरीवाल, यह राजनैतिक व्यवस्था और जस्टिस सिस्टम से जुड़ी हुई बड़ी समस्या है। हमारे देश की राजनैतिक इच्छाशक्ति तो पहले ही बर्बाद है। ऐसे में देश की जनता को आगे आना चाहिए। किसी एक मामले के लिए आवाज उठाने के बजाय पूरे सिस्टम में सुधार की बात की जाए। किसी एक जेसिका या नीतीश कटारा के लिए इंसाफ की लड़ाई से जरूरी है कि ऐसा सिस्टम तैयार करने की, जहां जेसिका या नीतीश के हत्यारों जैसे लोग पनप ही न पाएं।

क्या कर रहे हैं बाकी देश
अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, साउथ कोरिया, अर्जेंटीना, रूस, मेक्सिको आदि देशों में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठानेवालों की हिफाजत के लिए कानून हैं। अमेरिका में 1989 से ही विसलब्लोअर्स प्रोटक्शन बिल है तो ब्रिटेन में उससे पहले 1988 से ही पब्लिक इंटरेस्ट डिस्क्लोजर एक्ट लागू है। नॉर्वे में हाल में 2007 में ऐसा नियम बनाया गया। ऑस्ट्रेलिया के पांचों स्टेट में ऐसे कानून हैं, हालांकि वहां ऐसा कोई सेंट्रल लॉ नहीं है। न्यूजीलैंड में भी 2001 से ऐसा नियम लागू है। साउथ अफ्रीका ने भी ब्रिटेन के पदचिह्नों पर चलते हुए ऐसा कानून बना दिया है। इस मामले में सबसे बड़ा और कामयाब उदाहरण हॉन्गकॉन्ग का है, जहां 1970 में भारत से भी ज्यादा भ्रष्टाचार पसरा था। कानून-व्यवस्था बुरी तरह गड़बड़ाई हुई थी। इससे नाराज होकर हजारों स्टूडेंट सड़कों पर उतर आए। सरकार को मजबूर होकर इंडिपेंडेंट कमिशन अगेंस्ट करप्शन (आईसीएसी) को सारी पावर देनी पड़ी। चुन-चुन कर ईमानदार अफसरों को अहम पदों पर रखा गया और उन्हें तमाम पावर दी गईं। जनता के डर से राजनैतिक इच्छाशक्ति भी पैदा हुई। वहां मिडल लेवल पर 107 अफसर थे, जिनमें से 105 को डिसमिस कर दिया गया। इससे मेसेज गया कि अब भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। अब, हॉन्गकॉन्ग की गिनती अपेक्षाकृत साफ-सुथरे देशों में होती है।

Unless otherwise stated, the content of this page is licensed under Creative Commons Attribution-Share Alike 2.5 License.